Adhyatm kya hai ? अध्यात्म क्या है : अध्यात्म की कोई निश्चित और सटीक परिभाषा देना कठिन कार्य है। अध्यात्म spirituality केवल एक अनुभूति है. जिसके माध्यम से अज्ञात परतत्व की खोज, परमात्मा की खोज एवं उसका अस्तित्व, उसके रूप, गुण, स्वभाव, कार्य, जीवात्मा की कल्पना, परमात्मा से संबंध, भौतिक संसार की रचना, जन्म से पूर्व और बाद की स्थिति जानना, जीवन- मरण आदि के विषय में अपनी अपनी धारणाएं दी गई हैं।
जिसके आधार पर विभिन्न प्रकार की व्याख्यान सिद्धांत, सूत्र और कथाएं Lecture theory, formulas and stories शास्त्रों में वर्णित है। अध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है, अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना या आत्मा का दर्शन Soul darshan करना है. क्योंकि गीता में कहा गया है जीवात्मा ही अध्यात्म है।
जब हम अपनी समस्त वस्तुओं को जान लेते तो हमें एक आनंद की प्राप्ति होती है। शरीर की समस्त इंद्रियों Sense और उनकी सूक्ष्मता से परिचित होते हैं. हमें सत्य का ज्ञान होता है. लोक और परलोक की अनुभूति होती है. भूत और भविष्य के विषय में जानकारी हो जाती है.
तब यह आध्यात्म की श्रेणी में आता है। रामकृष्ण सिंगी के अनुसार -“अध्यात्म एक दर्शन है, चिंतन धारा है, विद्या है, हमारी संस्कृत की परंपरागत विरासत है, ऋषियों, मनीषियों के चिंतन का निचोड़ है, उपनिषदों का दिव्य प्रसाद है, आत्मा, परमात्मा, जीव, माया, जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, सृजन -प्रलय की अबूझ पहेलियों को समझाने का प्रयत्न अध्यात्म है।”
यह बात अलग है कि इस प्रयत्न को अब तक कितनी सफलता मिल पाई है। अब तक निर्मित स्थापनाएं, धारणाएं, विश्वास, कल्पनाएं किस सीमा तक यथार्थ की परिधि को छू पाई हैं. यह प्रश्न अनुत्तरित है. यह प्रश्न अनुत्तरित है, पर इस दिशा में अनंत प्रयत्न अनेक उर्वर मस्तिष्क द्वारा किए जाते रहे हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं है। अध्यात्म एक प्रकार का सांसारिक बंधनों Earthly shackles से मुक्त होना है. क्योंकि अध्यात्म से हमारी समस्त इंद्रियों और उनकी सूक्ष्मता का ज्ञान हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए कि जब हमारा अंतिम समय आ जाता है, तो हमारे हाथों में पश्चाताप के सिवा कुछ नहीं होता है।
अतः ऐसी स्थिति में आने से पहले यदि जीवन के संपूर्ण आनंद की अनुभूति प्राप्त हो जाए, तो लोक और परलोक दोनों सुधर जाते हैं। महान ऋषि याज्ञवल्क्य जी ने कहा है “आत्मज्ञ एव सर्वज्ञ” अर्थात जिसने अपनी आत्मा को जान लिया है. वही इस दुनिया में सर्वज्ञ है, जो भी व्यक्ति अध्यात्म की ओर जाता है, तो वह सबसे पहले अपने ही ज्ञान की सीमा को तय करता है।
सही अर्थों में नैतिकता पवित्र जीवन, नकारात्मक कार्यों और विचारों से बचना, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन को आघात पहुंचाने वाले कार्यों को पाप समझना, परोपकार, सत्य, न्याय, कर्तव्यनिष्ठा जैसे शाश्वत मूल्य सदैव अपने जीवन को प्रकाशित करते रहते हैं.
इसमें कभी भी किसी का विश्वास नहीं डिगना चाहिए. यही सच्चा अध्यात्मा है। अपने कष्टों को समझने और उनके समाधान करने की प्रक्रिया एक अध्यात्म है।
- 1. अध्यात्म की शुरुआत कैसे करें ? | How to start spirituality ?
- 2. अध्यात्म के लिए साधना कैसे करें ? | spiritual practice for spirituality
- 3. अध्यात्म की दुनिया में कौन से नियम पालन करनी चाहिए ? | rules should be followed in the spirituality world
- 3.1. 1. सुख-दुख और धर्म
- 3.2. 2. क्षमा | forgive
- 3.3. 3. दम | Suppress
- 3.4. 4. अस्तेय | Austere
- 3.5. 5. शौंच | Shaun
- 3.6. 6. इंद्रिय निग्रह
- 3.7. 7. बुद्धि
- 3.8. 8. विद्या
- 3.9. 9. सत्य
- 3.10. 10. क्रोध
अध्यात्म की शुरुआत कैसे करें ? | How to start spirituality ?
जब हमारा मन किसी द्वंद में फंस जाता है, कुछ भी हमारी समझ से परे हो जाता है. हमारे सम्मुख एक भयावह स्थिति आती है कि हम क्या करें या क्या ना करें ? ऐसी स्थिति में हम उस परम सत्ता परमात्मा god को याद करते हैं. जिसके स्मरण मात्र से हमारे सभी कार्य सफल हो जाते हैं।
जब यह स्थिति आती है, तो हम उस ईश्वर की प्राप्ति हेतु अपनी कदम उठाते हैं। जब भी हम आध्यात्मिक दुनिया में प्रवेश करते हैं, तो हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि इसकी प्रक्रिया क्या है ? इसके लिए हमें अपने को कैसे तैयार करना है ? अध्यात्म की दुनिया में जाने से पहले आपको किसी अच्छे व श्रेष्ठ गुरु noble teacher की तलाश करनी होगी।
यह गुरु ही हमें जीवन की समस्त अनसुलझे Unresolved रास्तों को समझाने का मार्ग बताएगा। हमें अपने आपको पूर्ण रूप से गुरु के बताए हुए मार्गों पर चलना होता है। वह हमें आध्यात्मिक शक्तियों और उनके लाभ, महत्व तथा साधने की प्रक्रिया को नियम पूर्वक करने के लिए प्रेरित करेगा।
सर्वप्रथम हमें पूर्ण रूप से सात्विक एवं सरल जीवन Satvik and simple life जीने की कला को सीखना पड़ता है और अपने चंचल मन को रोकना पड़ेगा। क्योंकि शरीर में चेतन और अवचेतन दोनों मन होते हैं, मन बड़ा चंचल होता है. इसलिए हमें अपने मन को हर संभव प्रयास करके नियंत्रित करना होता है।
जब भी हम किसी उलझन में होते हैं, तो हमें अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा को एकत्रित करना होता है। ईश्वर ने हमें कुछ ऐसे साधन दिए हैं. जिनका उपयोग करते हुए हम अपनी साधना को ईश्वर की सेवा में समर्पित कर सकते हैं. जिससे हमारी आध्यात्मिक उन्नति होती है और कुछ ऐसे साधन दिए हैं.
जिनका उपयोग करते हुए हम अपनी साधना को ईश्वर की सेवा में समर्पित कर सकते हैं। जिससे हमारी आध्यात्मिक उन्नति होती है. यह जरुरी नहीं है कि सभी व्यक्ति एक ही तरीके से साधना करें. क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति भिन्न होता है। साधना का सामान्य अर्थ है.
पूरी निष्ठा और लगन के साथ स्वयं में दैवी गुणों Divine qualities को विकसित करने और शाश्वत आनंद की प्राप्ति निरंतर नियमित रूप से साधना की जाए, दूसरे अर्थों में साधना, अपने भीतर की ओर जाने वाली वह व्यक्तिगत यात्रा है, जो पंच ज्ञानेंद्रियों मन एवं बुद्धि से परे जाकर उस आत्मा अर्थात (ईश्वर ) को अनुभव करना है, जो प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान है।
ईश्वर के अनगिनत गुणों में से एक गुण है शाश्वत, आनंद और इसलिए आत्मा की अनुभूति से हमें उस आनंद की अनुभूति होती है। यह सब हमें साधना से ही संभव है।
अध्यात्म के लिए साधना कैसे करें ? | spiritual practice for spirituality
आध्यात्मिक साधना के लिए हमें पूर्ण रूप से चित्र को शांत रखते हुए और तनाव को कम करके सद्गुणों को विकसित करके चरणबद्ध तरीके से प्रयास करें। जैसे-जैसे हमारी साधना गहन होती जाएगी, उतने बेहतर ढंग से हम अध्यात्म में प्रवेश कर पाएंगे।इसलिए आवश्यक है कि साधना के लिए हमें एकांत में रहना आवश्यक है।
शांत वातावरण ही ध्यान साधना में मददगार होगा। जब हमारे आसपास का वातावरण व्यवस्थित होता है, तो चित्त को भी व्यवस्थित करने में सहायता मिलती है। अस्त-व्यस्त वातावरण चित्त पर उल्टा प्रभाव डालता है। कोलाहल भरा वातावरण हमारी स्थिरता में बाधक बनता है।
इसीलिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पीठ सीधी और कंधे और गर्दन चेहरे की मांसपेशियों में खिंचाव न हो। साधना के समय साधक को बिल्कुल भी हिलना डुलना नहीं होता है। इसलिए ध्यान रहे कि जिस मुद्रा में बैठे हैं. वह हमारे लिए आराम देह हो, ध्यान साधना की अवधि ध्यान रखने योग्य बात यह है कि सभी चीजों में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं.
इसलिए प्रारंभ में थोड़े समय के लिए ध्यान लगाने की सलाह दी जाती है, धीरे-धीरे साधना अवधि बढ़ती है. शरीर पर किसी प्रकार का दबाव नहीं होना चाहिए. क्योंकि साधना के प्रारंभिक दिनों में कुछ दिन हमें अच्छा लगता है. कभी कभार अच्छा ना लगे. इसलिए साधना सतत करना पड़ता है.
तभी हमारी साधना में सुधार होता है। दुनिया में लोगों को एक सूत्र दिया है, ध्यान ही लोगों को अपनी शक्ति से परिचित कराता है, अपनी क्षमता, अहिंसा की शक्ति और सृजनात्मकता Creativity का निर्माण करना ध्यान में निहित है। आदमी शांति की खोज में है.
लेकिन जब तक वह सूक्ष्म में नहीं जाता है. तब तक उसे शांति नहीं मिल सकती है. हमें अपने उन सच्चाईयों से रूबरू होना पड़ेगा, जो हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं। अध्यात्म नई कल्पना, चिंतन, नये कार्य, नये मानव एवं नए विश्व निर्माण की आधारशिला बनी बनाई लकीरों पर चलकर हम लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकते है. अतः में नए रास्तों का निर्माण करना होगा।
अध्यात्म की दुनिया में कौन से नियम पालन करनी चाहिए ? | rules should be followed in the spirituality world
अध्यात्म की दुनिया में जाने के लिए निम्नलिखित चरणों का प्रयोग करना आवश्यक है, जो इस प्रकार है :
1. सुख-दुख और धर्म
जीवन में सुख और दुख का चक्र बदलता रहता है। जिस प्रकार से दिन और रात बदलते हैं, उसी प्रकार जीवन में सुख और दुख आते जाते रहते हैं. मनुष्य सुख में जहां एक और उन्नत रहता है. उसी तरह दुख में अधीर हो जाता है। परंतु धर्म की दुनिया में वह दोनों स्थितियों में समान हो जाता है।
गीता में लिखा गया है कि सुख -दुख, लाभ- हानि, यश- अपयश सभी को समान अवस्था में रहना चाहिए. इसलिए व्यक्ति को आध्यात्मिक प्रवृत्तियों को अपनाते समय धैर्य को बनाए रखें।
2. क्षमा | forgive
क्षमा महान व्यक्तियों का अलौकिक गुण होता है. क्योंकि निर्बल व्यक्ति कभी भी क्षमा की राह पर नहीं चल पाता है। क्षमा केवल दयालु व्यक्ति ही कर सकता है. उदाहरण के रूप में एक बार महात्मा बुद्ध भिक्षाटन पर थे। वह एक स्त्री के यहां भिक्षा मांगने पहुंचे। उस समय वह स्त्री अपने घर की पुताई कर रही थी।
उस स्त्री के घर पर देने के लिए कुछ नहीं था। उसने महात्मा बुद्ध जी को एक मिट्टी से सना हुआ कपड़ा फेंक कर मार दिया। महात्मा जी उसी कपड़े को उठाकर चले गए, बदले में उसे कुछ नहीं कहा। यह उनकी क्षमा और महानता का एक अलौकिक गुण था।
3. दम | Suppress
दम का अर्थ है दमन करना अर्थात अपने जीवन की सभी अनैतिक वृतियों Unethical acts का दमन करना आवश्यक है, अपनी इंद्रियों को बस में करना जरूरी है, जो इंद्रियां अब तक विषयों में लिप्त थी. उनका दमन आवश्यक है। शरीर में आंख, कान, मुंह, नाक, त्वचा आदि शब्द वाह्य विषयों की ओर ध्यान खींचती हैं. इसीलिए इन पर नियंत्रण आवश्यक है।
4. अस्तेय | Austere
किसी की कोई भी वस्तु या धन की चोरी ना करना ही अस्तेय है। यदि मनुष्य मन, वचन और कर्म से अस्तेय में प्रतिष्ठित होता है, तो वह दुनिया के सभी रत्नों की प्राप्ति कर लेता है।
5. शौंच | Shaun
शौच का मतलब पवित्रता से हैं। पवित्रता शारीरिक और आंतरिक होनी आवश्यक है। Purity must be physical and internal शारीरिक का मतलब है. वाह्य पवित्रता जिसमें शरीर को बाहर से पवित्र एवं शुद्ध रखना है तथा आंतरिक शुद्धता से मतलब है कि आध्यात्मिक पुरुष अपने अंतः करण को भी पवित्र और शुद्ध रखें।
यह सार्वभौमिक सत्य है कि जब तक अंतः करण शुद्ध नहीं होगा, आपका आध्यात्मिक जीवन मंजिल तक नहीं पहुंच पाएगा। मनुस्मृति में कहा गया है कि जल से शरीर शुद्ध होता है। सत्य का पालन करने से मन शुद्ध होता है। विद्या और तप से जीवन शुद्ध होता है। ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है। वस्तुतः शौच का यही वास्तविक स्वरूप है।
6. इंद्रिय निग्रह
अपने ज्ञान के माध्यम से विषयों में रत इंद्रियों को रोकना ही इंद्रिय निग्रह कहलाता है। जीवन में कितनी ही सुख शांति हो. परंतु इंद्रियां अस्थिर है, तो हमें कभी भी शांति नहीं मिल सकती है. इंद्रियों को कभी भी हट पूर्वक नहीं रोका जा सकता है. बल्कि इन्हें रोकने के लिए हमें अच्छा आहार, अच्छी सोच और अच्छे व्यवहार, ध्यान साधना, मन और बुद्धि को सात्विक बनाकर ही रोका जा सकता है।
7. बुद्धि
बुद्धि से ज्ञान अर्जित किया जाता है, जो व्यक्ति बुद्धि से ज्ञान अर्जित नहीं करते है, वे सत्संग आदि का लाभ नहीं ले सकते है. उनके लिए आध्यात्मिक जीवन व्यर्थ हो जाता है। बिना बुद्धि के आध्यात्मिक उन्नति की कल्पना नहीं की जा सकती है. शुद्ध बुद्धि के लिए हमें सात्विक विचारधारा Satvik ideology और सात्विक भोजन लेना अनिवार्य है। बुद्धि के शुद्ध होने पर चित और मन शुद्ध हो जाता है और अनावश्यक मनोविकार नहीं उत्पन्न होते हैं।
8. विद्या
विद्या दो प्रकार की होती हैं एक अपरा और दूसरी परा। Placenta and second para परा विद्या के माध्यम से हम ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति करते हैं. जबकि अपरा विद्या से लौकिक ज्ञान की प्राप्ति होती है। जीवन में दोनों विद्याओं का होना उपयोगी है।
9. सत्य
सत्य ही पारब्रह्म है, सत्य ही जीवन का आधार है। तीनों लोकों में सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं होता है, झूठ कितना भी शक्तिशाली हो. परंतु सत्य कभी हार नहीं सकता है। योग दर्शन का कथन है कि यदि मन, वाणी और कर्म से सत्य में स्थित हो जाए, तो वाणी में अमोघता आ जाती है अर्थात् मुख से कुछ भी कहने पर सत्य हो जाता है। सत्य का पालन ही मोक्ष मार्ग का विस्तार करने वाला है।
10. क्रोध
क्रोध विवेक को मार देता है. शास्त्रों के अनुसार व्यक्ति के जीवन में क्रोध से बड़ा कोई शत्रु enemy नहीं है. क्रोध मानव की शारीरिक मानसिक और आत्मिक उन्नति में बाधक हो जाता है। मनुष्य का सारा ज्ञान नष्ट हो जाता है। किसी धार्मिक व्यक्ति को स्वप्न में भी क्रोध नहीं करना चाहिए।