दोस्तों यदि आपको योग में रूचि है तो आपको कहीं ना कहीं अष्टांग योग Ashtanga yoga के बारे में अवश्य सुनने को मिला होगा किंतु साथ में आपके मन में यह प्रश्न अवश्य भी उठा होगा कि आखिर यह अष्टांग योग होता क्या है Ashtanga yoga ka vivarn , आप योग मार्ग पर कुछ उन्नति को प्राप्त करना चाहते हैं तब आपको महर्षि पतंजलि के बताएं यह अष्टांग योग के आठ नियमों का पालन करना सर्वथा आवश्यक है .
इसके बारे में महर्षि पतंजलि ने अपने ग्रंथ ‘पतंजलि योग सूत्र’ में व्याख्या की है। इसे दूसरे शब्दों में राजयोग के नाम से भी जाना जाता है।
लगभग 200 ईपू में महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और योग-सूत्र की रचना की। योग-सूत्र की रचना के कारण पतंजलि को योग का पिता कहा जाता है। उन्होंने योग के आठ अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन किया है. यही अष्टांग योग है.
अष्टांग योग का परिचय
अष्टांग योग महर्षि पतंजलि के अनुसार “योगश्चितवृत्तिनिरोध:” चित्तवृत्ति के निरोध का नाम योग है . इसकी स्थिति और सिद्धि के निमित्त कतिपय उपाय आवश्यक होते हैं जिन्हें ‘अंग’ कहते हैं और जो संख्या में आठ माने जाते हैं। अष्टांग योग के अंतर्गत प्रथम पांच अंग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार) ‘बहिरंग’ और शेष तीन अंग (धारणा, ध्यान, समाधि) ‘अंतरंग’ नाम से प्रसिद्ध हैं।
बहिरंग साधना यथार्थ रूप से अनुष्ठित होने पर ही साधक को अंतरंग साधना का अधिकार प्राप्त होता है। ‘यम’ और ‘नियम’ वस्तुत: शील और तपस्या के द्योतक हैं। यम का अर्थ है संयम जो पांच प्रकार का माना जाता है : (क) अहिंसा, (ख) सत्य, (ग) अस्तेय (चोरी न करना अर्थात् दूसरे के द्रव्य के लिए स्पृहा न रखना),।
इसी भांति नियम के भी पांच प्रकार होते हैं : शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय (मोक्षशास्त्र का अनुशलीन या प्रणव का जप) तथा ईश्वर प्रणिधान (ईश्वर में भक्तिपूर्वक सब कर्मों का समर्पण करना)। आसन से तात्पर्य है स्थिर और सुख देनेवाले बैठने के प्रकार (स्थिर सुखमासनम्) जो देहस्थिरता की साधना है।
आसन जप होने पर श्वास प्रश्वास की गति के विच्छेद का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का लेना श्वास और भीतरी वायु का बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है। प्राणायाम प्राणस्थैर्य की साधना है। इसके अभ्यास से प्राण में स्थिरता आती है और साधक अपने मन की स्थिरता के लिए अग्रसर होता है। अंतिम तीनों अंग मन:स्थैर्य का साधना है।
प्राणस्थैर्य और मन:स्थैर्य की मध्यवर्ती साधना का नाम ‘प्रत्याहार’ है। प्राणायाम द्वारा प्राण के अपेक्षाकृत शांत होने पर मन का बहिर्मुख भाव स्वभावत: कम हो जाता है। फल यह होता है कि इंद्रियाँ अपने बाहरी विषयों से हटकर अंतर्मुखी हो जाती है। इसी का नाम प्रत्याहार है (प्रति=प्रतिकूल, आहार=वृत्ति)।
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अब मन की बहिर्मुखी गति निरुद्ध हो जाती है और अंतर्मुख होकर स्थिर होने की चेष्टा करता है। इसी चेष्टा की आरंभिक दशा का नाम धारणा है। देह के किसी अंग पर (जैसे हृदय में, नासिका के अग्रभाग पर) अथवा बाह्यपदार्थ पर (जैसे इष्टदेवता की मूर्ति आदि पर) चित्त को लगाना ‘धारणा’ कहलाता है (देशबन्धश्चितस्य धारणा; योगसूत्र 3.1)। ध्यान इसके आगे की दशा है।
जब उस देशविशेष में ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप से प्रवाहित होता है, तब उसे ‘ध्यान’ कहते हैं। धारणा और ध्यान दोनों दशाओं में वृत्तिप्रवाह विद्यमान रहता है, परंतु अंतर यह है कि धारणा में एक वृत्ति से विरुद्ध वृत्ति का भी उदय होता है, परंतु ध्यान में सदृशवृत्ति का ही प्रवाह रहता है, विसदृश का नहीं। ध्यान की परिपक्वावस्था का नाम ही समाधि है।
चित्त आलंबन के आकार में प्रतिभासित होता है, अपना स्वरूप शून्यवत् हो जाता है और एकमात्र आलंबन ही प्रकाशित होता है। यही समाधि की दशा कहलाती है। अंतिम तीनों अंगों का सामूहिक नाम ‘संयम’ है जिसके जिसके जीतने का फल है विवेक ख्याति का आलोक या प्रकाश। समाधि के बाद प्रज्ञा का उदय होता है और यही योग का अंतिम लक्ष्य है।
योगदर्शन में योग के आठ अंग इस प्रकार बतायें गये हैं :-
यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,ध्यान,धारणा व समाधि. इनमे से प्रारंभिक पांच अंग बाह्य साधना के अंग हैं.जबकी शेष तीन अन्तरंग साधना के अंग है.महर्षि पतंजलि ने धारणा,ध्यान,समाधि को संयम भी कहा है. योग के इन आठ अंगो का संक्षेप में यहाँ वर्णन किया जा रहा है.
1) यम :-
योगदर्शन में अहिंसा,सत्य,अस्तेय,ब्रम्हचर्य व अपरिग्रह को यम कहा गया है. इन्हें पमुखता से पांच सामाजिक नैतिकता नियम कह सकते है , अच्छे और शांत माहोल के लिए एक सुरछित और स्वास्थ्य समाज की आवश्यकता होती है , और समाज हम से ही मिलकर बनता है , इसलिये समाज के प्रति हमारी भी कुछ जिम्मेदारी है इसलिये यम का पालन करना आवश्यक है .
अहिंसा :-
मन,वचन,कर्म या देहिक दृष्टि से किसी भी जीवधरी को कष्ट न पहुंचाना अहिंसा है . अहिंसा से बैर भाव समाप्त हो जाता है.
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सत्य :-
शास्त्रीय सिद्धांतो की रक्षार्थ जो कुछ कहा जाये अथवा मन , वचन, कर्म से यथार्थ की अभिव्यक्ति ही सत्य है. सत्य से वाणी की सिद्धि होती है.
अस्तेय :-
किसी भी अन्य के धन का अपहरण न करना अथवा मन,वचन,देह द्वारा किसी के हक को न छीनना ही अस्तेय है.अस्तेय से वांछित वास्तु प्राप्त होती है.
ब्रम्हचर्य :-
जननेंद्रीय के नियंत्रण को ब्रम्हचर्य कहते है, अथवा मन,शरीर , इन्द्रियों, द्वारा होने वाले काम विकार का आभाव ही ब्रम्हचर्य है . ब्रम्हचर्य से वीर्य लाभ होता है. जो बल या शक्ति का भी सूचक है.
अपरिग्रह :-
भोग वस्तुओ का संग्रह न करना अपरिग्रह है. अपरिग्रह से अतीत,वर्तमान , व भावी जन्मो का ज्ञान हो जाता है.
2) नियम :-
योग दर्शन में शौच,संतोष,तप,स्वाध्याय,व ईश्वर प्रणिधान को नियम कहते है. यह पांच नैतिक नियम है, जो हमारे अंदर की कलुस्ता (गंदगी) को दूर करते हैं, और हमें योग मार्गी जीवन जीने के लिए एक स्वच्छ और बेहतर शरीर प्राप्त करने में मददगार साबित होते हैं क्योंकि जब तक हम शारीरिक रूप से स्वस्थ और स्वच्छ नहीं रहेंगे तब तक हम योग मार्ग पर सफलता प्राप्त नहीं कर सकते हैं .
शौच :-
शौच का अर्थ पवित्रता या सुचिता है.पवित्रता दो तरह की होती है – बाह्य व आभ्यंतर . मिट्टी या जल से शरीर को स्वच्छ करना बाह्य शौच कहलाता है. जबकी अहंता, इर्ष्या , काम – क्रोधादि का त्याग आभ्यंतर शौच कहलाता है. भीतर बाहर की पवित्रता से सौमनस्य आता है, जिससे एकाग्रता बढती है. और आत्म साक्षातकार की योग्यता भी साधक में आ जाती है.
संतोष :-
जो कुछ भी उपलब्ध है, उससे अधिक की कामना न करना ही संतोष है. संतोष सबसे बड़ा धन है. इसके आगे संसार के सभी धन तुच्छ है दुसरे अर्थो में प्रसन्नचित्त रहना ही संतोष है.
तप :-
भूख-प्यास, सर्दी गर्मी,द्वन्द को सहन करना , व्रत करना, आदि ये सभी तप है.तप करने का लाभ यह होता है की साधक में सूक्ष्मातिसूक्ष्म व दूर की वस्तुओ को देख लेने की क्षमता का विकास होता है. साथ ही श्रवण शक्ति भी बढती है.
स्वाध्याय :-
वेद- पुराण,सद्ग्रंथो का अध्ययन भगवान् के नाम का उच्चारण करना, मंत्र का जाप करना आदि स्वाध्याय कहलाता है.
ईश्वर प्रणिधान :-
मन, वाणी, शरीर, से ईश्वर के प्रति समर्पण भाव ही ईश्वर प्रणिधान कहलाता है. इसका लाभ समाधि के रूप में प्राप्त होता है.
3) आसन :-
योगदर्शन में आसन उसे कहा गया है, जिसमे दीर्घकाल तक सुखपूर्वक स्थिरता से बैठा जा सके. ये कई तरह के होते है, जिनमे प्रमुख है – सिद्धासन,सुखासन,पद्मासन,स्वस्तिकासन आदि. तीन घंटे तक एक ही आसन में सुखपूर्वक बैठने को आसन सिद्धि कहते है.
आज आसन को योग का पर्याय और आसन का मुख्य उद्देश्य शरीर को रोग मुक्त करना माना जाने लगा है। आसन करने पर गौण रूप से शारीरिक लाभ भी होते हैं। परन्तु आसन का मुख्य उद्देश्य प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि हैं।
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जिस शारीरिक मुद्रा में स्थिरता के साथ लम्बे समय तक सुख पूर्वक बैठा जा सके उसे आसन कहा गया है। शरीर की स्थिति, अवस्था व साम्थर्य को ध्यान में रखते हुए भिन्न-भिन्न आसनों की चर्चा की गर्इ है। चलते-फिरते, उछलते — कूदते, नाचते-गाते हुए ध्यान नहीं हो सकता। ध्यान के लिए बैठना आवश्यक है।
मन को अगतिशिल र्इश्वर में लगाना तभी सम्भव है जब हम अपने शरीर को स्थिर अथवा अचल करें। अचलता से ही पूर्ण एकाग्रता मिलती है। उछलते, कूदते-नाचते हुए मन को पूरा रोकना, पूर्ण एकाग्र करना सम्भव ही नहीं है।
योगी खाते-पीते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, लेटे हुए, बात करते, किसी भी कार्य को करते हुए सतत् र्इश्वर की अनुभूति बनाए रखते हैं। र्इश्वर की उपस्थिति में ही समस्त कार्यों को करते हैं। किन्तु इसे र्इश्वर-प्रणिधान कहते हैं, यह समाधि नहीं है।
समाधि व र्इश्वर-प्रणिधान अलग-अलग हैं, कोर्इ यह न समझे कि योगी चलते-फिरते समाधि लगा लेता है। समाधि के लिए तो योगियों को भी समस्त वृत्तियों को रोककर मन को पूर्ण रूप से र्इश्वर में लगाना होता है, जिससे समाधि लग सके और इसके लिए शरीर की स्थिरता आवश्यक है।
पद्मासन ,स्वास्तिकासन, पीठासन, सिंहासन, कुक्कुटासन, कुंजरासन, कूर्मासन, वज्रासन, वाराहासन, मृगासन, चेलिकासन, क्रोंचासन, नालिकासन, सर्वतोभद्रास,न वृषभासन, नागासन ,मत्स्यासन, व्याघ्रासन ,अर्धचन्द्रासन ,दण्डासन, शैलासन, खंगासन, मुद्गरासन, मकरासन ,त्रिपथासन ,काष्ठासन, स्थाणूआसन,वैकर्णिकासन, भौमासन और वीरासन यह सब योगासन के रूप में जाने जाते है।
वैसे कुल तीस आसन बताये गये है। साधक पुरुष सर्दी गर्मी आदि रुकावटों से दूर होकर आपसी जलन और राग आदि छोड कर अपने गुरु के चरणों में ध्यान को रखकर उपरोक्त आसनों में से किसी एक को सिद्ध करके सांसों की गति को जीतने की कोशिश करके योग का मार्ग अपना कर अपने जीवन को सफ़ल कर सकता है।
4) प्राणायाम :-
आसन सिद्ध होने पर श्वास-प्रश्वास का विच्छेदन होने पर गति का भी विच्छेदन करना प्राणायाम कहलाता है. इसके तीन भेद है – रेचक, पूरक व कुम्भक . प्राणायाम करने से सभी दोषों का निवारण होता है तथा चित्त शुद्ध हो जाता है. अधिक स्पष्ट रूप में कहा जाये तो बाहर की वायु भीतर प्रवेश करे तो श्वास कहा जाता है. जबकी भीतर की वायु बाहर निकले तो उसे प्रश्वास कहते है. इन दोनों ही वायुओ को रोकने का नाम ही प्राणायाम है.
एक बात और स्पष्ट समझना आवश्यक है की प्राणवायु का नाभि,ह्रदय,कंठ या नासिका के भीतर तक का भाग अभ्यंतर देश है. नासिका छिद्रों से बाहर सोलह अंगुल तक का भाग बाह्य देश कहलाता है.
प्राणायाम से ज्ञान का आवरण जो अज्ञान है, नष्ट होता है। ज्ञान के उत्कृष्टतम स्तर से वैराग्य उपजता है। कपाल-भाति, अनुलोम-विलोम आदि प्राणायाम नहीं बल्कि श्वसन क्रियाएं हैं।
ये क्रियाएं हमें अनेको रोगों से बचा सकने में सक्ष्म है परन्तु इन्हें अपने आहार-विहार को सूक्ष्मता से जानने-समझने व जटिल रोगों में आयुर्वेद की सहायता लेने का विकल्प समझना हमारी भूल होगी। प्राणायाम सबके लिए महत्त्वपूर्ण व आवश्यक क्रिया है। प्राणायाम में प्राणों को रोका जाता है प्राणायाम चार ही है जो पतंजलि ऋषि में अपनी अमर कृति योग दर्शन में बताए हैं।
पहला — फेफड़ों में स्थित प्राण को बाहर निकाल कर बाहर ही यथा साम्थर्य रोकना और घबराहट होने पर बाहर के प्राण (वायु) को अन्दर ले लेना।
दूसरा — बाहर के प्राण को अन्दर (फेफड़ों में) लेकर अन्दर ही रोके रखना और घबराहट होने पर रोके हुए प्राण (वायु) को बाहर निकाल देना।
तीसरा — प्राण को जहां का तहां (अन्दर का अन्दर व बाहर का बाहर) रोक देना। और घबराहट होने पर प्राणों को सामान्य चलने देना।
चौथा — यह प्राणायाम पहले व दूसरे प्राणायाम को जोड़ करके किया जाता है। पहले तीनों प्राणायामों में वर्षों के अभ्यास के पश्चात कुशलता प्राप्त करके ही इस प्राणायाम को किया जाता है।
प्राणों को अधिक देर तक रोकने में शक्ति न लगाकर विधि में शक्ति लगायें और कुशलता के प्रति ध्यान दें। प्राणायाम की विधि को अच्छे प्रशिक्षक से सीखना चाहिए। ज्ञान तो सारा पुस्तकादि साधनों में भरा पड़ा है, किन्तु उसे व्यवस्थित करके हमारे मस्तिष्क में तो अध्यापक ही बिठा सकता है।
प्राणायाम हमारे शरीर के सभी तंत्रों को तो व्यवस्थित रखता ही है इससे हमारी बुद्धि भी अति सूक्ष्म होकर मुश्किल विषयों को भी शीघ्रता से ग्रहण करने में सक्षम हो जाती है। प्राणायाम हमारे शारीरिक और बौधिक विकास के साथ-साथ हमारी अध्यात्मिक उन्नति में भी अत्यन्त सहायक है।
प्राणायाम द्वारा हमारे श्वसन तंत्र की कार्य क्षमता बढ़ती है। यदि मात्र प्राणायाम काल को दृष्टि गत रखें तो उस समय अधिक प्राण का ग्रहण नहीं होता। प्राणायाम के समय तो श्वास-प्रश्वास को रोक दिया जाता है, फलत: वायु की पूर्ति कम होती है, किन्तु प्राणायाम से फेफड़ों में वह क्षमता उत्पन्न होती है कि व्यक्ति सम्पूर्ण दिन में अच्छी तरह श्वास-प्रश्वास कर पाता है।
प्राणायाम को प्रतिदिन प्रयाप्त समय देना चाहिए। कुछ विद्वान मानते हैं कि हमें एक दिन में इक्कीस प्राणायाम से अधिक नहीं करने चाहिए। परन्तु अन्य ऐसी बातों को अनावश्यक मानते हैं। प्राणायाम करते समय प्रभु से प्रार्थना करें कि हे प्राण प्रदाता! मेरे प्राण मेरे अधिकार में हो। प्राण के अनुसार चलने वाला मेरा मन मेरे अधिकार में हो।
प्राणायाम करते समय मन को खाली न रखें। प्राणायाम के काल मे निरन्तर मन्त्र ओम् भू: (र्इश्वर प्राणाधार है), ओम् भूव: (र्इश्वर दूखों को हरने वाला है), ओम् स्व: (र्इश्वर सुख देने वाला है) ओ३म् मह: (र्इश्वर महान है), ओम् जन: (र्इश्वर सृष्टि कर्ता है व जीवों को उनके कर्मों के अनुसार उचित शरीरों के साथ संयोग करता है।), (र्इश्वर दुष्टों को दुख देने वाला है), ओम् सत्यम (र्इश्वर अविनाषी सत्य है) का अर्थ सहित जप करें।
प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य मन को रोककर आत्मा व परमात्मा में लगना एवं उनका साक्षात्कार करना है, ऐसा मन में रखकर प्राणायाम करें।
प्राणों को रोकने के अपने सामर्थ्य को धीरे-धीरे धैर्य पूर्वक बढ़ाना चाहिए। बहुत लोग बहुत-बहुत देर तक सांस रोके रखते हैं, सरिया आदि मोड़ते हैं, किन्तु ऐसा नहीं कि उन सबका अज्ञान नष्ट होकर उन्हें विवेक-वैराग्य हो जाता हो। यदि प्राण को या सांस को तो रोक दिया परन्तु मन पर ध्यान नहीं दिया तो अज्ञान इस प्रकार नष्ट नहीं होता।
प्राणों के स्थिर होते ही मन स्थिर हो जाता है। स्थिर हुए मन को कहां लगायें ? पैसे में मन को लगायें तो पैसा मिलता है। परमात्मा में लगाने से र्इश्वर साक्षात्कार हो जाता है।
हम प्रतिदिन न जाने कितनी बार अपने प्राणों को वश में रखते हैं। इसके साथ ही मन भी उतनी ही बार वश में होता रहता है इस स्थिर हुए मन को हम संसार में लगाकर संसारिक सुखों को प्राप्त करते हैं।
जो यह कहता है कि मन वश में नहीं आता तो इसका अर्थ यह है कि आत्मा या परमात्मा में उसकी रूचि या श्रद्धा नहीं है। टी.वी. का मनपसन्द सीरियल हम एक-दो घण्टे तक मनोयोग पूर्वक कैसे देख पाते हैं यदि मन हमारे वश में न होता ! इसका सीधा सा अर्थ है कि हमारा मन पर नियन्त्रण का अभ्यास तो परिपक्व है किन्तु यह केवल सांसारिक विषयों में ही है।
अत: हमें मनोनियन्त्रण की शक्ति को केवल परिवर्तित विषय पर लगाने की आवश्यकता है अर्थात इसका केन्द्र आत्मा और परमात्मा को ही बनाना है।
महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि जैसे धार्मिक न्यायाधीश प्रजा की रक्षा करता है, वैसे ही प्राणायामादि से अच्छे प्रकार सिद्ध किये हुए प्राण योगी की सब दु:खों से रक्षा करते हैं।
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5) प्रत्याहार :-
इन्द्रियों का निज विषयों से विमुख होकर चित्त के स्वरुप का अनुकरण करना या उसी में अवस्थित हो जाना ही प्रत्याहार है. इन्द्रियों का अवरोध चित्त ही है और जब चित्त ही रुक जायेगा तो फिर इन्द्रियाँ भी स्वतः अवरुद्ध हो जाएँगी. प्रत्याहार का सबसे बड़ा लाभ यह होता है की साधक को बहार का ज्ञान नही रहता .
इन्द्रियाँ वशीभूत हो जाती है. अत: चित्त के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती हैं, जिस प्रकार रानी मधुमक्खी के एक स्थान पर रुक जाने पर अन्य मधुमक्खियां भी उसी स्थान पर रुक जाती हैं।
आंख, कान, नासिका आदि दसों इन्द्रियों को ससांर के विषयों से हटाकर मन के साथ-साथ रोक (बांध) देने को प्रत्याहार कहते हैं।
प्रत्याहार का मोटा स्वरूप है संयम रखना, इन्द्रियों पर संयम रखना। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति मीठा बहुत खाता है कुछ समय बाद वह अपनी मीठा खाने की आदत में तो संयम ले आता है परन्तु अब उसकी प्रवृति नमकीन खाने में हो जाती है।
यह कहा जा सकता है कि वह पहले भी और अब भी अपनी रसना इन्द्रिय पर संयम रख पाने में असफल रहा। उसने मधुर रस को काबू करने का प्रयत्न किया तो उसकी इन्द्रिय दूसरे रस में लग गर्इ।
इसी भांति अगर कोर्इ व्यक्ति अपनी एक इन्द्रिय को संयमित कर लेता है तो वह अन्य इन्द्रिय के विषय (देखना, सुनना, सूंघना, स्वाद लेना, स्पर्ष करना आदि) में और अधिक आनन्द लेने लगता है। अगर एक इन्द्रिय को रोकने में ही बड़ी कठिनार्इ है तो पाँचों ज्ञानोन्द्रियों को रोकना तो बहुत कठिन हो जायेगा।
इन्द्रियों को रोकना हो तो अन्दर भूख उत्पन्न करनी होगी। इनको जीतना हो तो तपस्या करनी पड़ती है और तपस्या के पीछे त्याग की भावना लानी पड़ती है। वैसे हम तपस्या बहुत करते हैं। दुनिया में ऐसा कोर्इ व्यक्ति नहीं है जो तपस्या करता ही न हो।
पैसे की भूख है तो हम पता नहीं कहाँ-कहाँ जाते हैं। कहाँ-कहाँ से लाते हैं। क्या-क्या करते हैं। सुबह से लेकर रात्रि में सोने तक और जब होश में हैं तब से आज तक हम उसी के लिए लगे हैं।
र्इश्वर को प्राप्त करने की ऐसी भूख नहीं है। जब र्इश्वर को प्राप्त करने के लिए भूख नहीं है तो इन्द्रियों के ऊपर संयम नहीं कर पायेंगे हम।
कोर्इ चेतन अन्य चेतन को नचा दे तो समझ में आता है, (जैसे मदारी, भालू, बन्दर आदि को नचाता है), लेकिन कोर्इ जड़ किसी चेतन को नचा दे, समझना बड़ा कठिन है। लेकिन हो यही रहा है। हम अपने जड़ मन को अपने अधिकार में नहीं रख पा रहे हैं। बल्कि यह जड़ मन हमें नचा रहा है।
कैसे अपनी इन्द्रियों को वश में रखना, इस बात को प्रत्याहार में समझाया है। एक को रोकते हैं तो दूसरी इन्द्रिय तेज हो जाती है। दूसरी को रोकें तो तीसरी, तीसरी को रोकें तो चौथी, तो पाँचों ज्ञानेनिद्रयों को कैसे रोकें ?
इसके लिए एक बहुत अच्छा उदाहरण देकर हमें समझाया जाता है जैसे जब रानी मक्खी कहीं जाकर बैठ जाती है तो उसके इर्द-गिर्द सारी मक्खियाँ बैठ जाती हैं। उसी प्रकार से हमारे शरीर के अन्दर मन है।
वह रानी मक्खी है और बाकी इन्द्रियाँ बाकी मक्खियाँ हैं। संसार में से उस रानी मक्खी को हटाकर भगवान में बिठा दो। फिर यह अनियंत्रित देखना, सूंघना व छूना आदि सब बन्द हो जायेंगे। प्रत्याहार की सिद्धि के बिना हम अपने मन को पूर्णत्या परमात्मा में नहीं लगा सकते।
6) धारणा :-
योग के वर्णित पांचो अंग बाहर के साधन है. शेष तीन अन्तः साधना है. इनमे भी धारणा प्रमुख है. आत्मा से ही ध्यान समाधि तक पहुंचा जा सकता है. धारणा क्या है ? चित्त को नाभिचक्र , नासिकाग्र ,हृत्पुंडरीक में एकाग्र कर लेना ही धारणा है. अथवा एक देश विशेष या भाग विशेष में चित्त को स्थिर कर लेना ही धारणा है. धारणा का अभ्यास करने से मन भी एकाग्र होने लगता है. और ध्यान में साधक को सफलता मिलती है.
अपने मन को अपनी इच्छा से अपने ही शरीर के अन्दर किसी एक स्थान में बांधने, रोकने या टिका देने को धारणा कहते हैं।
वैसे तो शरीर में मन को टिकाने के मुख्य स्थान मस्तक, भ्रूमध्य, नाक का अग्रभाग, जिह्वा का अग्रभाग, कण्ठ, हृदय, नाभि आदि हैं परन्तु इनमें से सर्वोत्तम स्थान हृदय प्रदेश को माना गया है। हृदय प्रदेश का अभिप्राय शरीर के हृदय नामक अंग के स्थान से न हो कर छाती के बीचों बीच जो गड्डा होता है उससे है।
जहां धारणा की जाती है वहीं ध्यान करने का विधान है। ध्यान के बाद समाधि के माध्यम से आत्मा प्रभु का दर्शन करता है और दर्शन वहीं हो सकता है जहां आत्मा और प्रभु दोनों उपस्थित हों। प्रभु तो शरीर के अन्दर भी है और बाहर भी परन्तु आत्मा केवल शरीर के अन्दर ही विद्यमान हैं। इसलिए शरीर से बाहर धारणा नहीं करनी चाहिए।
निम्नलिखित कारणों से प्राय: हम मन को लम्बे समय तक एक स्थान पर नहीं टिका पाते –
. मन जड़ है को भूले रहना।।
. भोजन में सात्विकता की कमी।।
. संसारिक पदार्थों व संसारिक-संबंन्धों में मोह रहना।।
. र्इश्वर कण — कण में व्याप्त है को भूले रहना
. बार-बार मन को टिकाकर रखने का संकल्प नहीं करना।।
. मन के शान्त भाव को भुलाकर उसे चंचल मानना।।
बहुत से योग साधक बिना धारणा बनाए ध्यान करते रहते हैं। जिससे मन की स्थिरता नहीं बन पाने से भी भटकाव अधिक होने लगता है।
जितनी मात्रा में हमने योग के पहले पांच अंगो को सिद्ध किया होता है। उसी अनुपात में हमें धारणा में सफलता मिलती है। धारणा के महत्त्व व आवश्यकता को निम्नलिखित उदाहरण से समझाया जा सकता है। जिस तरह किसी लक्ष्य पर बन्दूक से निशाना साधने के लिए बन्दूक की स्थिरता परमावश्यक है। ठीक उसी तरह र्इश्वर पर निशाना लगाने (र्इश्वर को पाने) के लिए हमारे मन को एक स्थान पर टिका देना अति आवश्यक है।
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7) ध्यान :-
ध्येय वस्तु में चित्तवृत्ति की एकाग्रता ही ध्यान अर्थात ध्येय वस्तु में तेल धारावत मन को अनवरत लगाये रखना ही ध्यान है. धारणा विभिन्न देशो या भागो में होती है. जबकी ध्यान तेल धारावत अविच्छिन्न होता है.
प्राय: मनुष्य अपने दैनिक कार्यों में इतना व्यस्त रहता है कि उसे यह भी बोध नहीं रहता कि उसे जीवन का अनुपम कार्य ध्यान करना है। कुछ मनुष्य अपने जीवन की व्यस्त दिनचर्या में से ध्यान के लिए कुछ समय निकालते हैं, परन्तु ध्यान में मन नहीं लगा पाते हैं।
ध्यान के लिए सर्वोत्तम समय सुबह चार बजे के आस-पास है। ध्यान की प्रक्रिया के अन्तर्गत स्थिरता व सुख पूर्वक बैठकर, आँखे कोमलता से बंद कर, दसों यम-नियमों का चिन्तन करते हुए यह अवलोकन करें कि आप पिछले दिन अपने व्यवहार को उनके अनुरूप कितना चला पाएं हैं। तत्पश्चात मन को निर्मल करने के लिए प्राणायाम करें।
उसके पश्चात अपने मन को शरीर के अन्दर किसी स्थान पर (देखें-धारणा) टिका कर स्वयं के अनश्वर चेतन स्वरूप होने व आपसे भिन्न इस शरीर के नश्वर होने पर विचार करें। र्इश्वर की सर्वत्र विद्यमानता को महसूस करते हुए अनुभव करें कि आप प्रभु में हैं और प्रभु आप में हैं। प्रभु के गुणों का चिन्तन करते हुए यह महसूस करें कि उसके आनन्द, अभयता आदि गुण आपमें आ रहे हैं।
भूल से या अज्ञानता से यदि मन इधर-उधर जाए तो तत्काल मन को पुन:-पुन: धारणा स्थल पर टिकाकर प्रभु की पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा, प्रेम व तन्मयता से चिन्तन करना है।
ध्यान का अर्थ कुछ भी न विचारना, विचार-शुन्य हो जाना नहीं है। जिस प्रकार पीपे (टिन) में से तेल आदि तरल पदार्थ एक धारा में निकलता है उसी प्रकार प्रभु के एक गुण (आनन्द, ज्ञान आदि) को लेकर सतत् चिन्तन करते रहना चाहिए।
जैसे सावधानी के हटने पर तेल आदि की धारा टूटती है। वैसे ही किसी एक आनन्द आदि गुण के चिन्तन के बीच में अन्य कुछ चिन्तन आने पर ध्यान-चिन्तन की धारा टूट जाती है। ध्यान में एक ही विषय रहता है, उसी का निरन्तर चिन्तन करना होता है।
ध्यान में निर्विषय होने का अभिप्राय यह है कि जिसका ध्यान करते हैं, उससे भिन्न कोर्इ विषय नहीं हो। ध्यान को ही उपासना कहा जाता है।
यधपि ध्यान का सर्वोत्तम समय सुबह का है फिर भी ध्यान दिन के किसी भी समय, कितनी ही बार किया जा सकता है परन्तु प्राणायाम को ध्यान की प्रक्रिया में तभी शामिल करें यदि वह समय प्राणायाम के नियमों के अनुकूल हो।
8) समाधि :-
जब ध्याता को न ध्येय वस्तु का ध्यान रहे और न ही स्व का ज्ञान रहे तब समधिअवास्था होती है. अर्थात समाधि में ध्येय,ध्यान , ध्याता का लोप हो जाता है. सतत अभ्यास के बाद ये तीनो ही एकाकार हो जाते है. समाधि का प्रमुख लक्ष्य कैवल्य अर्थात मोक्ष की प्राप्ति होता है.यह समाधि जब स्थूल पदार्थ में होती है तब निर्वितक कहलाती है लेकिन जब सूक्ष्म पदार्थ में होती है तब इसे निर्विकार कहा जाता है.
ध्यान करते-करते जब परोक्ष वस्तु का प्रत्यक्ष (दर्शन) होता है, उस प्रत्यक्ष को ही समाधि कहते हैं।
जिस प्रकार आग में पड़ा कोयला अग्नि रूप हो जाता है और उसमें अग्नि के सभी गुण आ जाते हैं। उसी प्रकार समाधि में जीवात्मा में र्इश्वर के सभी गुण प्रतिबिंम्बित होने लगते हैं।
जीवात्मा का मात्र एक प्रयोजन मुक्ति प्राप्ति है और योगी इस प्रयोजन को समाधि से पूर्ण करता है।
उपसंहार-अब एक उदाहरण से यह समझाने का प्रयत्न करते हैं कि उस र्इश्वर को प्राप्त करने में योगविद्या की क्या महानता है। आत्मा में ज्ञान की क्षमता को असीम मानते हुए (र्इश्वर के मुकाबले आत्मा में ज्ञान की क्षमता सीमित ही है)
एक कुषाग्र बुद्धि वाला व्यकि तभी सौ वर्षों में अध्ययन आदि के माध्यम से केवल कुछ विषयों में ही परांगत हो सकता है जबकि इस सृष्टि में अनगणित और अन्तहीन विषय हैं। सब विषयों को पूर्णतया जानना जीवात्मा के लिए वैसे ही असम्भव है जैसे समुद्र का सारा पानी एक कुंए में नहीं समा सकता परन्तु कुंआ समुद्र के पानी से लबालब भरा तो जा सकता है।
इसी तरह समाधि के माध्यम से आत्मा को ज्ञान से लबालब भर दिया जाता है। जिस भी विषय के लिए समाधि लगार्इ जाती है। उस विषय का ज्ञान आत्मा में आ जाता है। इस तरह समाधि के माध्यम से आत्मा अनगणित विषयों में परांगत हो सकता है।
यह कथन कि सारा ज्ञान अथवा सारे वेद हमारी आत्मा में हैं का तात्पर्य यह है कि ज्ञान स्वरूप परमात्मा हमरी आत्मा में पूर्णतया व्याप्त है परन्तु परमात्मा, जो ज्ञान का अथाह भण्डार है, को पाने के लिए हमें उचित ज्ञान चाहिए जो हमें योग्य गुरुओं द्वारा ही प्राप्त हो सकता है।
महर्षि पतंजलि ने अपने अष्टांग योग में इन्हीं 8 अंगों के बारे में बताया है जो कि एक योग मार्गी जीवन जीने के लिए अत्यधिक आवश्यक है,
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